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क्यां हुआ जो हम अब अजनबी बन गए, इतनी जल्दी दूरियाँ बढ़ गई

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तेरा इंतजार करता हूँ रोज रातों में, खुद को सांसों में समेटा हुआ देखता हूँ
वो एक रोज सारी खुशियाँ लेकर लौट आएगी, इस उम्मीद को लेकर बहाल रही है जिंदगी
आपके दोस्त आपको हज़ार साल पुराने परिचितों की तुलना में जल्दी और बेहतर तरीके से समझ पायेंगे।
गुजर जाएगा ये दौर भी ज़रा सा सब्र तो रख, जब खुशियों ही नहीं रुकी तो गम की क्या औकात है
निकाल दिया उसने अपनी जिंदगी से भीगे कागज़ की तरह, ना लिखने के काबिल छोड़ा ना जलने के
हलके-हलके बढ़ रही है चेहरे की लकिरें; लगता है, नादानी और तजुर्बे का बंटवारा हो रहा है
आंसूं किसी के दुःख को समझता नहीं है, और न ही किसी की ख़ुशी को
टूटा हुआ दिल और मुस्कुराते हुए चहरे वाले व्यक्ति से, ज्यादा मजबूत कुछ भी नहीं है
उदास कर जाती है मुझे हर रोज ये शाम, ऐसा लगता है जैसे कोई भुला रहा है धीरे धीरे
बड़ा सोचो, जल्दी सोचो ,आगे सोचो विचारों पर किसी का अधिकार नहीं है” – धीरूभाई अंबानी